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एक औरत ही आदम की तकदीर थी / रमेश 'कँवल'
Kavita Kosh से
एक औरत ही आदम की तक़दीर थी
या हवस की गुफाओं की जागीर थी
हर कड़ी का बदन खौफ़ में क़ैद था
सच को जकड़े हुये एक जंजीर थी
फ़र्ज़ की सूलियों पे मैं खामोश था
चारसू गूंजती मेरी तक़दीर थी
वक़्त ने म्यूजियम में सजाया मुझे
उसकी दीवारों पर मेरी तहरीर थी
आइनों के बदन पर दहकते हुये
पत्थरों की विवशता की तस्वीर थी
एक 'सारा शिगुफ्ता1 थी इक थे 'सर्इद2‘
जैसे रांझे की आहों में इक हीर थी
क्या मुक़द्दर था परछाइयों का 'कंवल’
कोर्इ दीवारो-दर थे नत दबीर थी।
1. कराची की एक शायरा 2. सारा के प्रेमी।