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10:34, 26 फ़रवरी 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=धीरेन्द्र अस्थाना
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<poem>उल्फत -ए-रुसवाई में जो मिली जुदाई ,
तन्हाई में जीने की आदत सी हो गयी ...............!
गुजरे हैं जिन्दगी के उस मुकाम से ,
हर गम पीने की आदत सी हो गयी...!
अब तो बस दिए हुए उन जख्मों को ,
यादों में सीने की आदत सी हो गयी...!
खुद मेरी मंजिल मालूम नहीं मुझे ,
भीड़ में खो जाने की आदत सी हो गयी...!
ये ज़िंदगी तो अब मुकद्दर बन गयी ,
सजा -ए - मौत पाने की आदत सी हो गयी...!
सैयाद तेरा दाम कितना ही नाजुक हो ,
इस में फडफड़ाने की आदत सी हो गयी...!
उल्फत -ए-रुसवाई में जो मिली जुदाई ,
तन्हाई में जीने की आदत सी हो गयी...!
</poem>