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किस हवा ने उडाया इस तरह
के कि सूखे पत्तों की तरह पानी पे तैर रहा हूँ।जल्दबाजी जल्दबाज़ी का किस सैलाब ने बहा डाला इस तरह
कि अपनों को देखते हुए बह रहा हूँ।
छोटी-सी लहर भी बहा सकता सकती है मुझे
कोई जाल चाहिए ही नहीं !
जो भी लगा सकेगा गर्दन पे काँटे मुझे
जाल चाहिए ही नहीं !
फिर भी साजिसों साजिशों के काले हाथ गर्दन मरोडने मरोड़ने के लिए तैनात किए हुए हैंफिर भी उन सभी का पहाड पहाड़ बना के सुरंग खोदने के लिएकुछ नजरें नज़रें उठी हुई हैं।
किस वसन्त पे पतझड़ बुलाकर
दिल ही तो है इन्सान का,
नाजुक है
इसे अब कहाँ ले जा कर रखना होगा?
</poem>
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