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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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<poem>
बेकार है फ़ितूर दिले-बेक़रार में
कुछ भी नहीं रखा है मुए प्यार-व्यार में

बदलेगा वक़्त आएंगी ख़ुद मंज़िलें क़रीब
यह सोचकर खड़े हैं कई इंतेज़ार में

तारी ख़िज़ां है रुख पे हँसी है बनावटी
संजीदगी नुमाया है फ़स्ल-ए-बहार में

दिन का सुकूनो-चैन गया नींद रात की
"कुछ भी नहीं रहा है मेरे इख़्तियार में"

देखो बिछड़ के तुमसे ये फूलों का हार भी
कांटों सा चुभ रहा है दिले बेक़रार में

है सुब्ह-ए-नौ से रात गए सफ़ में ज़िंदगी
ताउम्र क्या खड़े ही रहेंगे क़तार में

यूँ तो हबीब ही हैं फ़क़त नाम है 'रक़ीब'
लाखों में गर नहीं हैं तो हम हैं हज़ार में
</poem>
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