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बेकार है फ़ितूर दिले-बेक़रार में / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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बेकार है फ़ितूर दिले-बेक़रार में
कुछ भी नहीं रखा है मुए प्यार-व्यार में

क्या रह गया है इश्क़ में, चाहत में, प्यार में
बेकार सी कशिश है दि ले बे-क़रार में

बदलेगा वक़्त आएंगी ख़ुद मंज़िलें क़रीब
यह सोचकर खड़े हैं कई इंतेज़ार में

छाई ख़िज़ां है रुख पे हँसी है बनावटी
संजीदगी का रंग है फ़स्ल-ए-बहार में

दिन का सुकून हो कि हो रातों का वो क़रार
"कुछ भी नहीं रहा है मेरे इख़्तियार में"

देखो बिछड़ के उसकी सभी रौनकें गयीं
तन्हा ही रह गया है वो उजड़े दयार में

अब पूछने लगी है ये हमसे उमीदे-दिल
ताउम्र क्या खड़े ही रहेंगे क़तार में

हर एक का हबीब है बस नाम है 'रक़ीब'
लेकिन ये बात आती नहीं इश्तेहार में