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07:43, 30 मार्च 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सूर्यदेव पाठक 'पराग'
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नागिन जइसन डँसत अन्हरिया, कबहीं ना भिनसार भइल
कटलो से ना कटत उमरिया, छन-छन जिनगी भार भइल
कबहूँ पेट भरल ना आपन, करत मजूरी-बेकारी
फाटल कपड़ा पहिरत अबले, सउँसे देह उघार भइल
भाखन सुनलीं लमहर-लमहर, रासन भइल नदारत बा
टुकड़ा-टुकड़ा रोटी खातिर, लड़िकन सन में मार भइल
आन्ही में छप्पर उधियाइल, खर्र-पतहर ना मिलल कहीं
घर-आँगन में लागल पनियाँ, बरखा मुसलाधार भइल
जीतल चोर चुहाड़े अबले, बम से, चाहे लाठी से
मेहनत आ ईमान-धरम के डेगे-डेगे हार भइल
अपना हक खातिर भइया हथवा पइयाँ मजबूत करऽ
हक खातिर लड़के कुछ पइबऽ, जुग के आज पुकार भइल
</poem>