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जल-महोत्सव / प्रतिभा सक्सेना

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<poem>
*
शिरो स्नान कर गीले बदन चल दीं हवाएँ,
उधर पूरव दिशा में जल-महोत्सव चल रहा होगा!
*
बिखरते जा रहे उलझे टपकते केश काँधे पर
दिशाओं में अँधेरा रेशमी फैला,
सिमट कर रोक लेती
सिक्त पट की जकड़ती लिपटन,
उठा पग थाम कर बढ़ने नहीं देता!
*
सिहरते पारदर्शी गात की आभा नहीं छिपती
दमक कर बिजलियों सी
कौंध जाती चकित नयनों में,
दिशाएँ चौंक जातीं,
दृष्य-पट सा खोलकर सहसा
हवा चलती कि पायल-सी झनक जाती.
*
रँगों की झलक छलकी पड़ रही
श्यामल घटाओं में,
कि ऋतु का नृत्य- नाटक,
पावसी परिधान ले सारे
वहाँ का मंच अभिनय से जगा होगा !
*
मृदंगों के घहरते स्वर,
उमड़ते आ रहे रव भर.
वहाँ उन मदपियों की रंगशाला में,
उठा मल्हार का सुर
दूर तक चढ़ता गया होगा!
महोत्सव चल रहा होगा!

**
</poem>