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जल-महोत्सव / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
शिरो स्नान कर गीले बदन चल दीं हवाएँ,
उधर पूरव दिशा में जल-महोत्सव चल रहा होगा!
बिखरते जा रहे उलझे टपकते केश काँधे पर
दिशाओं में अँधेरा रेशमी फैला,
सिमट कर रोक लेती
सिक्त पट की जकड़ती लिपटन,
उठा पग थाम कर बढ़ने नहीं देता!
सिहरते पारदर्शी गात की आभा नहीं छिपती
दमक कर बिजलियों सी
कौंध जाती चकित नयनों में,
दिशाएँ चौंक जातीं,
दृष्य-पट सा खोलकर सहसा
हवा चलती कि पायल-सी झनक जाती.
रँगों की झलक छलकी पड़ रही
श्यामल घटाओं में,
कि ऋतु का नृत्य- नाटक,
पावसी परिधान ले सारे
वहाँ का मंच अभिनय से जगा होगा !
मृदंगों के घहरते स्वर,
उमड़ते आ रहे रव भर.
वहाँ उन मदपियों की रंगशाला में,
उठा मल्हार का सुर
दूर तक चढ़ता गया होगा!
महोत्सव चल रहा होगा!