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07:40, 5 अप्रैल 2015 {{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनाथ सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
बहुत मैं तुमसे पाता हूँ,
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
सुनता हूँ हो बिना हाथ के,
ले लो मेरे हाथ।
उनके द्वारा जो चाहो सो,
करो जगत में नाथ।
माथ मैं तुम्हें झुकता हूँ,
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
सुनता हूँ हो बिना पैर के,
ले लो मेरे पैर।
उनके द्वारा जब चाहो तब,
करो जगत की सैर।
गैर के पास न जाता हूँ,
तुम्हे कुछ देने आता हूँ।
सुनता हूँ हो बिना गात के,
ले लो मेरे गात।
जिसको चाहो उसको दर्शन,
दिया करो दिन रात।
बात हित की बतलाता हूँ,
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
यानी अपनी इच्छा की लो,
बना मुझे तसवीर।
सेवा करूँ तुम्हारे जग की,
जब तक रहे शरीर।
तीर सा दौड़ा आता हूँ।
तुम्हे कुछ देने लाता हूँ।
</poem>