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|रचनाकार=नारायणलाल परमार
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<poem>दूर-दूर तक गूँजा करता
है दादा जी का खर्राटा।

पत्ते थर-थर काँप रहे हैं,
पेड़ खड़े हैं हक्के-बक्के।
बरामदे के हर खंभे के,
मानो छूट रहे हैं छक्के।
भरी दोपहर दूर-दूर तक
नजर नहीं आता सन्नाटा!

आँधी पास नहीं आती है,
छूट रहा है उसे पसीना!
पशु-पक्षी लें कहाँ बसरेा,
मुश्किल हुआ सभी का जीना।
याद नहीं होगा मौसम को,
लगा कभी ऐसा झन्नाटा।

नीकू-चीकू भी डरते हैं,
जैसे टैंक चल रहा कोई।
या कि फिर भट्ठी में भारी,
लोहा अभी ढल रहा कोई।
आसमान से नीचे आकर
नहीं मारती चील झपाटा!
</poem>
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