भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दादा जी का खर्राटा / नारायणलाल परमार
Kavita Kosh से
दूर-दूर तक गूँजा करता
है दादा जी का खर्राटा।
पत्ते थर-थर काँप रहे हैं,
पेड़ खड़े हैं हक्के-बक्के।
बरामदे के हर खंभे के,
मानो छूट रहे हैं छक्के।
भरी दोपहर दूर-दूर तक
नजर नहीं आता सन्नाटा!
आँधी पास नहीं आती है,
छूट रहा है उसे पसीना!
पशु-पक्षी लें कहाँ बसरेा,
मुश्किल हुआ सभी का जीना।
याद नहीं होगा मौसम को,
लगा कभी ऐसा झन्नाटा।
नीकू-चीकू भी डरते हैं,
जैसे टैंक चल रहा कोई।
या कि फिर भट्ठी में भारी,
लोहा अभी ढल रहा कोई।
आसमान से नीचे आकर
नहीं मारती चील झपाटा!