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13:03, 3 अक्टूबर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जहीर कुरैशी
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|संग्रह=
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<poem>मुर्गा है एलार्म-घड़ी
बातें करता बड़ी-बड़ी!
तड़के बाँग लगाता यूँ
कुकडूँ-कूँ, भई, कुकडू़ँ-कूँ!
कहता है-जागो भाई,
सुबह कर रही अगुवाई!
सुबह-सुबह यदि सोते हो,
तन में आलस बोते हो!
बात पते की कहता हूँ,
कुकडू़ँ-कूँ, भई, कुकडू़-कूँ!
जो जगते हैं सुबह-सुबह,
उन्हें नहीं आलस का भय!
दिन भर ताजा रहते हैं,
नदियों जैसे बहते हैं!
मैं भी ताजा रहता हूँ,
कुकडू़ँ-कूँ, भई, कुकडू़-कूँ!
</poem>