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चल मेरी साइकिल / रमेश आज़ाद

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<poem>चल मेरी साइकिल
चल री, चल।
जब जी चाहे
घूम-टहल।
आँगन-आँगन तू बढ़ जा
गलियारे में तू बढ़ जा,
कमरे में यदि जगह न हो
छत के ऊपर चढ़ जा!
सब से आगे सदा निकल!
चल मेरी साइकिल
चल री चल!
पटरी-पटरी बढ़ती जा
बीच सड़क से बचती जा,
भरकर के फर्राटे तू-
अपनी मंज़िल चलती जा!
भीड़-भड़क्का संभल-संभल!
चल मेरी साइकिल
चल री, चल!
घंटी बजा-बजा के चल
बचकर, अरी बचाके चल,
हक्के-बक्के देखें सब
ऐसी धूम मचाके चल!
चल री रस्ते बदल-बदल!
चल मेरी साइकिल
चल री, चल!
</poem>
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