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|रचनाकार=दिनेश कुमार स्वामी 'शबाब मेरठी']]
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<poem>

कोई ग़ुस्सा नहीं बयान नहीं
आप इतने तो बेज़बान नहीं

इस हक़ीक़त पे भी नज़र रखिए
धूप है और सायबान नहीं

ज़ख़्म ताज़ा है चोट गहरी है
और लहू का कोई निशान नहीं

बत्तियाँ बुझ गईं तो लगता है
बस्तियों में कोई मकान नहीं

क़ब्र में जी रहे हों सब जैसे
ज़िन्दगी का कहीं निशान नहीं

अर्थियों के निशान बोलेंगे
मेरे काँधे तो बेज़बान नहीं
</poem>