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18:23, 11 नवम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अनुपमा पाठक
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>आना है
आकर फिर
चल देने की परिपाटी है...
माटी का दिया
माटी के इंसान
अंततोगत्वा सब माटी है...
कहते हैं, चलते रहने से
गंतव्य तक की दूरी
कम हो जाती है...
अंतिम बेला दिवस की
अवसान समीप है
खुद से दूरियां भी कहाँ गयीं पाटी हैं...
निभ रही बस
आने और चल देने की परिपाटी है... !! </poem>
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