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कमाल की औरतें ३६ / शैलजा पाठक

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|संग्रह=मैं एक देह हूँ, फिर देहरी
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<poem>वो हर रात
कागज़ की एक नाव बनाती है
और रखती है
बिस्तर पर

वो कौन सी नदी है
जिसमें डूबने से डरती है
और बचने के लिए
लेती है सहारा
उस कागज़ की नाव का

अबूझ रातें होती हैं
डूब कर खोने का डर होता है
और बचा पाने की
कोशिश...इतनी सी।</poem>
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