{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह= पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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वो बैठे हैं सजने को
आँखों ने सब से कह डाला सबऔर बचा रहा क्या कहने को
शौक़ बात नहीं गर वो मंज़िल कामेंचल , रस्ते पर थकने को
नाख़ून नाखुन उसके बढ़ आयेज़ख्म जख्म चले जब भरने को
महके सारा घर, जब माँ
बैठे माला जपने को
शाम ढले ढ़ले जब हँस दे तू
मचले सूरज उगने को
मुस्काये जब पूरा चाँद जो मुस्काए
सागर तड़पे उठने को
''{ (द्विमासिक सुख़नवर, जनवरी-फरवरी,2010}''</poem>)