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13:29, 7 मार्च 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गौतम राजरिशी
|संग्रह=पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजरिशी
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<poem>
करवट बदल-बदल के ही, आँखों में ही सही
कमबख़्त रात ये भी गुज़र जाएगी सही
उट्ठी हैं हिचकियाँ जो बिना बात यक-ब-यक
अच्छा लगा कि सोचे है मुझको कोई सही
ऊँगली छुई थी चाय का कप थामते हुये
दिल तो गया ही, जान भी निकली रही-सही
तौहीन बादलों की ज़रा हो गई तो क्या
निकला तो आफ़ताब दिनों बाद ही सही
छूटी गली जो तेरी तो अफ़सोस क्या करें
रास आ रही है क़दमों को आवारगी सही
हर बार कैसे सीटी बजाऊँ, तुम्हीं कहो
आओ भी बालकोनी में ख़ुद से कभी सही
भूल आपको गये, न किया फोन हमने गर ?
‘अच्छा ये आप समझे हैं ! अच्छा यही सही’
तारें उदास बैठे हैं अम्बर की गोद में
अब आ भी जा ऐ चाँद ! कि हो चाँदनी सही
आई अभी तलक न वो, ऐ यार क्या करूँ
सिगरेट ही पिला दे ज़रा अधफुकी सही !
सब कुछ सही, इस उम्र का अंदाज़ ऐसा है
वहशत सही, जुनूँ सही, दीवानगी सही
(अभिनव प्रयास, अक्टूबर-दिसम्बर 2015)