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21:48, 14 मई 2016 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार मुकुल
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
और यथार्थ भी
एक दिन
स्वप्न हो जाता है
आपके कांधे से लग
...बिहंसती खुशी
कैद हो जाती है
आइने में अपने ही
खुद पर रीझती और खीझती
उसकी आवाज
अब दूर से आती सुनाई पडती है
दुविधा की कंटीली बाड
कसती जाती है घेरा
और जीने का मर्ज
मरता जाता है
मरता जाता है...।
</poem>