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और यथार्थ भी एक दिन स्वप्न हो जाता है / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
और यथार्थ भी
एक दिन
स्वप्न हो जाता है
आपके कांधे से लग
...बिहंसती खुशी
कैद हो जाती है
आइने में अपने ही
खुद पर रीझती और खीझती
उसकी आवाज
अब दूर से आती सुनाई पडती है
दुविधा की कंटीली बाड
कसती जाती है घेरा
और जीने का मर्ज
मरता जाता है
मरता जाता है...।