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मारव मया के गुलाल / चेतन भारती

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देखो आगेस अरु फागुन तिहार,
अंजुरी भर-भर मारव मया के गुलाल ।

जाड़ के झरती आगे सुग्घर महीना,
झांकत हावे देख रूख म नवा पिका ।
पाके पाना हरियागे धरती के अंचरा ,
भोंगर्रा घला भुलागे, अपन जुन्ना रद्दा।।
चलव नाचव डंडा जमो बनके गुवाल,
तन रचव मन रचव मगन हो गाले फाग ।

तोर परघनी म बइहागे अमुवा लिमुवा,
फूल म लदागे दुल्हा कस बाग-बगीचा ।
पहाती सुकुवा के घला हरगे चेत,
मंदरस के माछी मगन हावे देख ।।
लइका अऊ पिचका जुरो सियान,
पिचकारी पितकव देवव फुहार ।

अइठत गिंजरत हावे कोन गाँव म,
कतको पिये अलसाय परे हावे छाँव म।
चिटिकुन सुख बर बेत झन सांस ल,
मछरी कस फंसे लिल झन फांस ल ।।
आगू ठाढ़े अगोरत हावे बसंत,
चोर से फेंकव गुलाल, उड़जाय मलाल ।
</poem>
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