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रीढ़ / योगेंद्र कृष्णा

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|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
आगे…बहुत आगे
निकल गइ है यह भीड़
ज़िंदगी से सफ़र में
बहुत पीछे छोड़ कर अपनी रीढ़

बहुत खतरनाक हो सकता है
एक रीढ़विहीन भीड़ के बीच
बहुत ज़िद में
या तन कर रहना भी…

उन्हें लगता है
मैं भीड़ में अकेला
बहुत नाकारा
नाचीज़ रह गया हूं…

दुनियावी दांव-पेंच में
सब कुछ खोते-खोते
साबुत वहीं का वहीं

निस्संग और निराधार रह गया हूं
अपनी रीढ़ ढोते-ढोते…