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अभिमन्यु को तो मैं तब कहता अभिमन्युजीवन है स्वीकार न मुझको सीधी खिंची लकीर-जब तोड़ सकता होतासा, भेद सकता होता यदि चाहे वह, एक परम भयावहझंकार भरा नूतन सितार का तार हो!गोलाकार क्षितिज रेखा सा भी जीवन लूँगा नहीं-जालों, तारोंचाहे वह वन वल्लरियों-सा सुन्दर घूंघरदार हो!जीवन लूँगा मैं तो आँधी, काँटों का जटिल ग्रन्थिल चक्रव्यूहनद्दी या तूफ़ान-सा,अभियन्ता जिसकाजिसमें तड़पन हो, ज्वाला हो, गुंजन, मेघ-इंटैलिजैंट उच्चकुर्सीधर समूहमलार हो!
प्रतिष्ठित है सम्भ्रान्त, व्हाइट कॉलर! मुखौटेदार चेहरे, कितनेकुतुब की लाट से कई मंजिले, तने। गर्दनें! अकड़ से फूली एअरकंडीशनी अफसरशाही,गुटरगूँ करते कबूतरों की-सी, धूपछाँही। सैट आँखों में चश्माभेदी दृष्टियाँ,अण्डाकार खोपड़ियों में करतीं साजिश की सृष्टियाँ! बगुलों की पाँखों से सफ़ेदपोश, अपनी महिमा में दीन!अजगरी बैठकें साधे, बहुरूपिये, पेटू, उच्चपदासीन! हावड़ा के पुल से, पानी में भीगे जूट के-से,.........जाल-फैले हैं जिनके मस्तिष्कों में विशाल!मुक्त करे भोले व्यक्ति को, मुक्त करे जो पीड़ित समाज,तोड़े, भेदे आज के चक्रव्यूह को जाँ-बाज-मैं तो उसी को कहूँगा ताजा अभिमन्यु आज!1956
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