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क्या करें / यतींद्रनाथ राही

349 bytes added, 10:09, 12 अक्टूबर 2017
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सूरदास जीकसमसाती मुट्ठियाँ हैंबैठ झरोखेतिलमिलाते हैं षिखरमुजरा देख रहे पूछते, हिमनद पिघलते हैंकहो!हम क्या करें?
किसकी खाट खड़ी चौराहेबरसे किस पर डन्डेमन्दिर में भगवान सो रहेभोगा लिप्त हैं पन्डेकौन ले गया भर जेबों मेंसड़कें-ताल-पोखरेनंगे नाच रहे हैं किसकेछोड़ दें ये बिगड़ैल छोकरेआदतेंकाले मुँहछिद्रान्वेशण की ग़लतबिक गए थोक इन अँधेरों में खुदरा देख रहे हैंदंश धर रहे हैं छाती कहीं परपाले थे जो विशधररोज़ नयी दीवार खड़ी रोशनी तो हैगाज गिरी जल रहा है घर परएक जुगनूकहीं धुआँ हैजो निरन्तर रात भरकहीं आग हैहौसलों के साथ कुछदीवानगी तो है।विश में बुझी हवाएँजो धरे हैं देश के हितआगे-पीछे हर नुक्कड़ सिर हथेली परअडिगधमकाती शंकाएँपंथ इनकेपावन संस्कृतियों का बखियास्वस्ति वाचनउधड़ा देख रहे हैं।दीप मंगल के धरे।
उधर पड़ोसी की गुर्राहटरोटियाँ सेकें नहींइधर शांति-पारायणयह यज्ञ पावन हैखुली हवा बन सकेंसमिधा बनेंअक्शत बने, चन्दन बनेज्योति के इस प्रज्ज्वलन के लियेतरसते याज्ञनिक हैंहमघुटते वातायनआहुती के घृत बनेंदुष्टअर्पण बनें, अर्चन बनें।हो विमुग्धित गन्ध मण्डितमन्त्र-दलन कर मानवता गुंजित युगधराचिन्तनों में फिर किसीनव ज्योति केरक्शण की मर्यादानिर्झर झरें।धरी अधर पर कभी बाँसुरीकभी चक्र भी साधास्वर हमारेषान्त सिन्धु मेंतन्त्र प्राणों केआज समर्पित हैंये उभरते ज्वार फिरसारे बन्ध तोड़ेंगेउभरा देख उठ रहे हैं।हैं हरदिषा रणभेरियों के स्वरअब किसी दशकन्ध कीलंका न छोड़ेंगेधर्म की संस्थापना-हितमन्त्रणाएँ हों विफलतब उचित हैशस्त्र कीसंसाधनों को ही वरें।
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