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क्या करें / यतींद्रनाथ राही

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कसमसाती मुट्ठियाँ हैं
तिलमिलाते हैं षिखर
पूछते, हिमनद पिघलते हैं
कहो!
हम क्या करें?

छोड़ दें ये आदतें
छिद्रान्वेशण की ग़लत
इन अँधेरों में कहीं पर
रोशनी तो है
जल रहा है एक जुगनू
जो निरन्तर रात भर
हौसलों के साथ कुछ
दीवानगी तो है।
जो धरे हैं देश के हित
सिर हथेली पर अडिग
पंथ इनके
स्वस्ति वाचन
दीप मंगल के धरे।

रोटियाँ सेकें नहीं
यह यज्ञ पावन है
बन सकें
समिधा बनें
अक्शत बने, चन्दन बने
ज्योति के इस प्रज्ज्वलन के
याज्ञनिक हैं हम
आहुती के घृत बनें
अर्पण बनें, अर्चन बनें।
हो विमुग्धित गन्ध मण्डित
मन्त्र-गुंजित युगधरा
चिन्तनों में फिर किसी
नव ज्योति के
निर्झर झरें।

स्वर हमारे
तन्त्र प्राणों के
समर्पित हैं
ये उभरते ज्वार सारे बन्ध तोड़ेंगे
उठ रहे हैं हरदिषा रणभेरियों के स्वर
अब किसी दशकन्ध की
लंका न छोड़ेंगे
धर्म की संस्थापना-हित
मन्त्रणाएँ हों विफल
तब उचित है
शस्त्र की
संसाधनों को ही वरें।