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सूखती जड़ें / दिनेश श्रीवास्तव

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<poem>
कब सोचा था कि
घर से हजारों कोस दूर
जिंदगी का इतना लम्बा
पड़ाव होगा.

और पड़ाव भी कैसा-
जहाँ न तो कोयल की
तान मन हुलसाये है,
न कौए की चीख
खिझलाहट.

अब तो बसों के धुंए से
दम नहीं घुटता.
कचरे के ट्रकों से
बदबू नहीं आती.
और भीख मंगाते बच्चों को
देख,
आँखें नहीं पसीजती.

अब तो इतना मजबूर
हो गया हूँ-
अब तो घर से इतनी दूर
हो गया हूँ, कि
घर और गांव
बस सपने में नज़र आते हैं.

डर है कि कहीं ये
सपने भी धुँधले न हो जायें.
डर है कि
कहीं मेरी जड़ें ही न
सूख जायें.

</poem>
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