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11:08, 19 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुरेश चंद्रा
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|संग्रह=
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<poem>
तुम्हे जो नभ कहता
बरस जाती रचती हुई घटायें
मेरी शुष्कता पर, समूची की समूची तुम
कहता वृक्ष जो तुम्हे
सर्वस्व लुटा देती
तुम जड़ों के अवरोह तक
नदी कहता तुम्हे
तुम मुझ तक मुझमे घुलकर
खो देती अस्तित्व अपना
तुम्हारी प्रकृति अंततः प्रदेय है, स्त्री !
प्रयुक्त है तुम मे शक्ति देने और केवल देते रहने की
और मैं पुरुष, अपनी प्रथम प्रवृति से
जानता हूँ केवल, सोखना, भक्षणा और लीलना
मैं मात्र सम्मोहन का कण हूँ तारिकाधुली में
प्रिय तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो !!
</poem>