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तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो / सुरेश चंद्रा
Kavita Kosh से
तुम्हें जो नभ कहता
बरस जाती रचती हुई घटायें
मेरी शुष्कता पर, समूची की समूची तुम
कहता वृक्ष जो तुम्हें
सर्वस्व लुटा देती
तुम जड़ों के अवरोह तक
नदी कहता तुम्हें
तुम मुझ तक मुझमें घुलकर
खो देती अस्तित्व अपना
तुम्हारी प्रकृति अंततः प्रदेय है, स्त्री!
प्रयुक्त है तुम में शक्ति देने और केवल देते रहने की
और मैं पुरुष, अपनी प्रथम प्रवृति से
जानता हूँ केवल, सोखना, भक्षणा और लीलना
मैं मात्र सम्मोहन का कण हूँ तारिकाधूलि में
प्रिय तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो.