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08:34, 27 दिसम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कैलाश पण्डा
|अनुवादक=
|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
}}
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<poem>
एक रिक्त स्थान
गति देता अंजान
लहरे बनती
भीड़ भरे जीवन में
पा लेना चाहती थाह
अन्ततः प्रेषित होती
उन्मुक्त गगन को
शांत विराट
अनन्त की छाया में
कुछ करना चाहती
बंधन से मुक्त
मानो सर्वत्र हो युक्त
संकीर्ण संकायों के
भ्रम को तोड़
वह कहती
सब मेरे अपने
मैं सबको
क्योंकि उसका वेग
ऊर्ध्वगामी जो होता है।
</poem>
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