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जली हुई देह / गोविन्द माथुर

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एक स्त्री की
 
 
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|रचनाकार=गोविन्द माथुर
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छवि
जैसा दिखता हू¡
वैसा ह¡ू नहीं मैं
जैसा ह¡ू वैसा
दिखता नही
 
जैसा दिखना चाहता ह¡ू
वैसा भी नही दिखता
बहुत कोशिश की
अपनी छवि बनाने की
 
वेशभूषा भी बदली
बालो का स्टाइल भी
बदलता रहा बार-बार
फ्रेंचकट दाढ़ी भी रखी
म¡ुह में पाईप भी दबाया
जैसा दिखना चाहता था
वैसा नही दिखा मैं
 
लोगो ने नही देखा
मुझे मेरी दृष्टि से
लोगों ने देखा मुझे
अपनी दृष्टि से
 
में जैसा अन्दर से हू¡
वैसा बाहर से नही ह¡ू
जैसा बाहर से हू¡
वैसा दिखना नही चाहता
 
वैसा भी
नही दिखना चाहता
जैसा कि
अन्दर से हू¡ मैं
 
´´´´´´
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नींद मेें स्त्री
 
 
कई हजार वर्षों से
 
नींद में जाग रही है वह स्त्री
नींद में भर रही है पानी
नींद में बना रही है व्यंजन
नींद में बच्चों को
खिला रही है दाल-चावल
 
कई हजार वर्षों से
नींद में कर रही है प्रेम
पूरे परिवार के कपडे़ धोते हुए
झूठे बर्तन साफ करते हुए
थकती नहीं वह स्त्री
हजारों मील नींद में चलते हुए
 
जब पूरा परिवार
सो जाता है सन्तुष्ट हो कर
तब अन्धेरे में
अकेली बिल्कुल अकेली
नींद में जागती रहती है वह स्त्री
 
´´´´´´
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