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जली हुई देह / गोविन्द माथुर
Kavita Kosh से
वह स्त्री पवित्र
अग्नि की लौ से गुज़र कर
आई उस घर में
उसकी देह से फूटती रोशनी
समा गई घर की दीवारों में
दरवाज़ों और खिड़कियों में
उसने घर की हर वस्तु
कपड़े, बिस्तर, बर्तन
यहाँ तक कि झाडू को भी दी
अपनी उज्जवलता
दाल, अचार, रोटियों को दी
अपनी महक
उसकी नींद, प्यास, भूख
और थकान विलुप्त हो गई
एक पुरूष की देह में
पवित्र अग्नि की
लौ से गुज़र कर आई स्त्री को
एक दिन लौटा दिया अग्नि को
जिस स्त्री ने
पहचान दी घर को
उस स्त्री की पहचान नही थी
जली हुई देह थी
एक स्त्री की