996 bytes added,
16:12, 4 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जाल सहरा पे डाले गये।
यूँ समंदर खँगाले गये।
रेत में धर पकड़ सीपियाँ,
मीन सारी बचा ले गये।
जो जमीं ले गए हैं वही,
सूर्य, बादल, हवा ले गये।
सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ,
वक़्त पर जो झुका ले गये।
मैं चला जब तो चलता गया,
फूट कर ख़ुद ही छाले गये।
ख़ुद को मालिक समझते थे वो,
अंत में जो निकाले गये।
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader