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17:29, 4 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं।
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं।
मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ,
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं।
आइने से मिला तो ये पाया,
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं।
फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा,
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं।
अब ज़माना उन्हीं का है ‘सज्जन’,
क्या हुआ गर वो सिर्फ़ जुम्ले हैं।
</poem>
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