भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं।
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं।

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ,
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं।

आइने से मिला तो ये पाया,
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं।

फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा,
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं।

अब ज़माना उन्हीं का है ‘सज्जन’,
क्या हुआ गर वो सिर्फ़ जुम्ले हैं।