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{{KKRachna
|रचनाकार=सुन्दरचन्द ठाकुर
|संग्रह=
}}

धूप मेरी आत्मा में ऊष्मा बनकर उतर रही है<br>
आकाश का नीला मुझे हरा बना रहा है<br><br>

मैंने आँख मूंदकर पक्षियों की आवाजें सुनीं<br>
गाड़ियों में और जीवन के शोर के ऊपर तिरती महीन<br>
और जाना कि किस तरह वे एक पल को भी ख़त्म न होती थीं<br>
चारों ओर से हम पर बरसता रहता है कितना जीवन<br>
मगर हम ही हैं कभी बुद्धिमान कभी मूर्ख बनकर<br>
ज़िन्दगी गंवाने पर तुले रहते हैं<br><br>

मैं देर तक सोखता रहा धूप<br>
करवट बदल-बदलकर<br>
काम के हर सोच को मुल्तवी करता<br>
अप्रत्याशित इस समय को भरा माँ ने<br>
अपने बचपन के किस्सों और धूप पर एक लोकगीत से<br>
वह जब दिन का भोजन बनाने चली गई<br>
मैंने उड़ते तोतों को देख अपना बचपन याद किया<br>
इस शहर में कितने लोग धूप का आनंद ले पाते हैं<br>
चालीस की रवां उम्र में तो यह नामुमकिन हो चला है<br>
मगर आज धूप में बेफिक्र लेटा अपनी उपलब्धि पर खुश होता रहा मैं<br>
सोचा मैंने लिखूं इस खुशी पर एक कविता<br>
जिसमें धूप हो, आकाश का नीलापन<br>
रविवार की फुर्सत और तोतों की टवां-टवां<br>
मगर लिख न पाया<br><br>

धूप मेरे विचारों को सोखती रही<br>
मेरे पास थी पेसोआ की कविताओं की किताब<br>
मैंने पढ़ी एक के बाद एक उसकी कविताएं अनेक<br>
अंततः जब मैं छत से उतर लौटा घर के भीतर<br>
धूप और कविताओं से भर चुका था इस कदर<br>
कुछ भी लिखने-सोचने की चिंता से बेज़ार<br>
मैंने माँ के हाथ का खाना खाया<br>
और कंबल ओढ़कर सो गया। <br><br>