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03:39, 26 अगस्त 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मानोशी
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<poem>
हर हुनर हम में नहीं है ये हक़ीक़त मानते हैं
पर हमारे जैसा भी कोई नहीं है जानते हैं
जो ख़ुदा का वास्ता दे जान ले ले और दे दे
हम किसी ऐसी ख़ुदाई को नहीं पहचानते हैं
हम अगरचे गिर गये तो उठ भी खुद ही जायेंगे पर
अपने बूते ही हैं करते दिल में जो हम ठानते हैं
जो हमारा नाम है अख़बार की इन सुर्ख़ियों में
हम किसी नामी-गिरामी को नहीं पहचानते हैं
हम नहीं वो ’दोस्त’ जो झुक के वफ़ा की भीख माँगें
इश्क इबादत है मुहब्बत को ख़ुदा हम मानते हैं
</poem>