पहले धीमी,फिर तेज़ होती,
फिर इतनी तेज़ होती,इतने पास आती
कि कानों को बहरा करती...
मैंने यमराज के जूतों की शक्ल भी देखी,
कि उसने मुझे बिल्कुल अकेला छोड़ दिया;
इतने बड़े संसार में--
सारहीन-सत्वहीन-तत्वहीन--
बच्चन दा,अकेलापन ज़िन्दगी पर बड़ा सब्र करता है.
एक अशांत यात्रा है--आदिहीन...अंतहीन--
और मेरी आत्मा कुछ अशांति की ही खोज में
मारी मारी फिर रही है. आपके पास तो नहीं है ?