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महानगर / शशिकान्त गीते

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जीवन टुकड़े, हर टुकड़े की
अपनी-अपनी जंग
 
पेड़ों नीचे देह कतारें
कमसिन, तरुण, अधेड़
हफ्ताबन्द प्रशासन काटे
गूँगे मुजरिम पेड़
 
नहर भूमिगत भरे जड़ों में
फिर-फिर नई उमंग
दिन उलझाए रखते तन-मन
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