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महानगर / शशिकान्त गीते
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महानगर के मेरे भैया
बड़े अजब हैं ढंग
ठुँसे वाहनों लोग, रोग हैं
जाने क्या-क्या पहने
भरी अटैची-बैग हाथ में
लुटे हुए हैं गहने
रंग-बिरंगी सुबह, शाम तक
हो जाती बदरंग
धुआँ कसैला रोके सांसें
गला दबाती रोटी
गिद्ध-बाज ज़िन्दा लाशों की
नोचें बोटी-बोटी
जीवन टुकड़े, हर टुकड़े की
अपनी-अपनी जंग
दिन उलझाए रखते तन-मन
झकझोरे हैं रातें
और उमस में घुट दम तोड़े
थकी-डरी-सी बातें
विकृत हवा यहाँ हो जाती
इसके-उसके संग
रोते-रोते हँस देता है
हंसते-हंसते रोता
सतत् जागता पगलाया-सा
कोलाहल है ढोता
मन, मस्तिष्क, हृदय पथराए
लगता पड़ा अपंग
नदी रोशनी की बहती है
अन्धियारे में कूल
चिकनी सड़कों पाँव फिसलते
चुभते मन में शूल
बार-बार गाते बाउल का
स्वर हो जाता भंग