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15:53, 16 नवम्बर 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रवि सिन्हा
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तारीख़ पे वहशत छाई है तूफ़ाँ से कहो अब आ जाए
घनघोर घटा बिजली तो गिरे रहबर को राह दिखा जाए
मौसम को ये मालूम तो था इस दहर<ref>युग (era)</ref> की फ़स्लें क्या होंगी
दहक़ाँ<ref>किसान (peasant)</ref> से कहो मुस्तक़बिल<ref>भविष्य (future)</ref> के पौधे खेतों में लगा जाए
ये धरती बौनी फ़स्लों की ये इल्म-ओ-अदब से ख़ाली घर
तारीक़<ref>अँधेरा (dark)</ref> है मशरिक़<ref>पूरब (east)</ref> कोई तो सूरज की किरन फैला जाए
ये मुल्क सँवारे माज़ी<ref>अतीत ( past)</ref> को इस क़ौम का मुस्तक़बिल धुँधला
ताक़त में सनी इस दिल्ली को कोई सच से नहला जाए
ग़ालिब के बयाँ से ना-वाक़िफ़, मोमिन का शे’र भी बे-हासिल
है ख़ाम<ref>कच्चा (unripe)</ref> अभी नाला<ref>पुकार (lament, cry)</ref> तो क्या बुलबुल-ए-शोरीदा<ref>बेचैन बुलबुल (a nightingale in frenzy)</ref> गा जाए
उम्दा न कहा, सस्ता न कहा, गहरा कहने की जद्द-ओ-जहद
पायाब<ref>छिछला (shallow)</ref> ये दरिया बहता है, अधजल ये घड़ा छलका जाए
इस उम्र-ए-ग़ज़ल की महफ़िल में इक देर से पहुँचे शायर को
मक़्ते<ref>ग़ज़ल का आख़िरी शे’र (last she’r of the ghazal)</ref> की घड़ी आते-आते कहने का सलीक़ा आ जाए
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