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17:17, 17 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=बाद्लेयर
|अनुवादक=सुरेश सलिल
|संग्रह=
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<poem>
रोग और मृत्यु ने राख-राख कर दी
वह सारी आग जो हमारे लिए धधकी
वे बड़ी-बड़ी आँखें, बहुत उत्सुक-बहुत कोमल
वह मुख जहाँ मेरा हृदय डूबा,
वे चुम्बन, किसी मरहम जैसे असरदार
वे भावावेग, सूर्य किरणों से अधिक उत्कट,
क्या भला बचा उनका ?
भयानक है यह, ओ मेरी आत्मा!
कुछ भी नहीं, एक चित्रालेख के सिवा;
तीन खड़िया रंगों में, बहुत बहुत फीका —
जो मेरी तरह मरता हुआ निर्जन में
और जिसे, काल — वह वीभत्स बूढ़ा
पोछता है नित्य अपने कठोर-रूक्ष डैने से...
जीवन और कला के ओ दुष्ट छलछाती
मार नहीं पाओगे स्मृति में मेरी कमी, उसे
मेरा विलास थी जो मेरा प्रभामण्डल थी !
'''अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>