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रूप-चित्र / बाद्लेयर / सुरेश सलिल
Kavita Kosh से
रोग और मृत्यु ने राख-राख कर दी
वह सारी आग जो हमारे लिए धधकी
वे बड़ी-बड़ी आँखें, बहुत उत्सुक-बहुत कोमल
वह मुख जहाँ मेरा हृदय डूबा,
वे चुम्बन, किसी मरहम जैसे असरदार
वे भावावेग, सूर्य किरणों से अधिक उत्कट,
क्या भला बचा उनका ?
भयानक है यह, ओ मेरी आत्मा!
कुछ भी नहीं, एक चित्रालेख के सिवा;
तीन खड़िया रंगों में, बहुत बहुत फीका —
जो मेरी तरह मरता हुआ निर्जन में
और जिसे, काल — वह वीभत्स बूढ़ा
पोछता है नित्य अपने कठोर-रूक्ष डैने से...
जीवन और कला के ओ दुष्ट छलछाती
मार नहीं पाओगे स्मृति में मेरी कमी, उसे
मेरा विलास थी जो मेरा प्रभामण्डल थी !
अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल