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06:57, 30 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बैर्तोल्त ब्रेष्त
|अनुवादक= उज्ज्वल भट्टाचार्य
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
और इनसान तो इनसान ही है आख़िर
फिर चाहिए उसको दाना ।
ऐसी बकवास किस काम की
जिसमें दाना नहीं है पाना ।
हाँ, लेफ़्ट, राइट, लेफ़्ट !
हाँ, लेफ़्ट, राइट, लेफ़्ट !
साथी ढूँढ़ लो अपना ठौर !
कामगार मोर्चे में हो जाओ शामिल
तुम कामगार हो, नहीं कोई और ।
और इनसान तो इनसान ही है आख़िर
उसे पसन्द नहीं मुँह पर लात ।
उसे ग़ुलाम कतई नहीं चाहिए
ना ही मालिक जो कहे हर बात ।
हाँ, लेफ़्ट, राइट, लेफ़्ट !
हाँ, लेफ़्ट, राइट, लेफ़्ट !
साथी ढूँढ़ लो अपना ठौर !
कामगार मोर्चे में हो जाओ शामिल
तुम कामगार हो, नहीं कोई और ।
और सर्वहारा तो सर्वहारा है
उसे कोई ना कर सके आज़ाद ।
कामगार ख़ुद ही हासिल करे आज़ादी
वह ख़ुद ही हो आबाद ।
हाँ, लेफ़्ट, राइट, लेफ़्ट !
हाँ, लेफ़्ट, राइट, लेफ़्ट !
साथी ढूँढ़ लो अपना ठौर !
कामगार मोर्चे में हो जाओ शामिल
तुम कामगार हो, नहीं कोई और ।
'''मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य'''
</poem>