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08:38, 30 अप्रैल 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=शेखर सिंह मंगलम
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
कुछ हज़ार दिनों की दवात में
संघर्षों की स्याही है
पीछे कुछ पन्नों पर
मैंने खुद लिखा है और
कुछ पन्नों पर अ-वश लिख दिया हूँ जबकि
मैं कभी नहीं चाहता था लिखना
पन्नों को कुरेदकर,
शेष पन्नों पर लिखने के लिए
नीले रंग में (ख़ून) मिलाना है ताकि
कुछ बचे हज़ार दिनों (की)
दवात की स्याही से लिख सकूँ
सब कुछ मनचाहा मगर
अ-वश भी लिखना होगा-जैसे
जन्म लेना दुर्घटना है
बाद मुक्ति की पुनः कामना,
ज़िन्दगी से घटना
मृत्यु की तरफ़ बढ़ना है
कुछ हज़ार बचे दिनों (की) दवात में
उम्मीदों की क़लम है
स्याही जब तक, तब तक चलना (फिर)
सबको ही मरना-
”किसी का मरना रुटीन तो किसी का ऐतिहासिक घटना है“
चुनाव सबका अपना-अपना लेकिन
दूसरा विकल्प कर्म की जलती गुफ़ा में प्रतीक्षारत है...
</poem>