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|संग्रह=सुर्ख़ियों के स्याह चेहरे / रामकुमार कृषक
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<poem>
हो गई हैं खिड़कियाँ
दीवार
घुटता दम
धुऍं से भर गया भेजा,

हमारी शान फिर भी हम !

आँख की पुतली
अमावस हो गई है
दे नहीं पाता दिखाई तिल
अन्धेरा
बो गई है,

हमारी तान फिर भी हम !

प्राण की ठठरी
सजावट हो गई है
दे नहीं पाता दिखाई दिल
अदावत
बो गई है,

हमारी आन फिर भी हम !

9 अक्तूबर 1975
</poem>
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