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रखा है अपना अंधेरा कई तहों में
सघन संगीत के मध्य में पुंजीभूत करके ।
 
उस दिन उज्जयिनी के उस प्रासाद-शिखर पर
न जाने कैसी घन घटा, विद्युत-उत्सव,
चिरकाल से अवरुद्ध अश्रुजल
आद्र करते हुए तुम्हारी उदार श्लोकराशि ।
 
उस दिन क्या संसार के समस्त प्रवासी
जोड़ हस्त मेघपथ पर शून्य की ओर उठा माथा
नवमेघपंख पर कर आसीन
भेजनी चाही थी प्रेमवार्ता
 
अश्रुवाष्प से भरा - दूर वातायन में यथा
विरहन थी सोई भूतलशयन में
खींच लाती है दिग्दिगन्त से वारिधारा
महासमुद्र के मध्य होने के लिए दिशाहारा ।
 
पाषाण-शृंखलाओं में जैसे है बन्दी हिमाचल
आषाढ़ के अनन्त शून्य में हेरता हूँ मेघदल
सब मिलकर अन्त में हो जाते हैं एकाकार,
समस्त गगनतल पर जमा लेते हैं अधिकार ।
 
उस दिन के बाद से बीते कई सौ दिन
प्रथम दिवस की स्निग्ध वर्षा नवीन ।
नववृष्टि वारिधारा, करते हुए विस्तार
नवघन स्निग्ध छाया का करते हुए संचार
 
नव नव प्रतिध्वनि जलद-मन्द्र की,
स्फीत कर स्रोत-वेग तुम्हारे छन्द की
वर्षातरंगिणी के समान ।
 
कितने काल से
कितने विरही लोगों ने, प्रियतमाविहीन घरों में,
सुप्त कपोत, है केवल विरह विकार में
रमणी निकलती है बाहर प्रेम-अभिसार के लिए
 
सूची भेद्य अन्धकार में राजपथ के मध्य
कदाचित विद्युतलोक में; कहाँ विराजता है
मणिमहल के असीम सम्पदा में हो निमग्न
रो रहे हैं एकाकीपन की विरह वेदना पर ।
 
खुले वातायन से उन्हें देखा जा सकता
शैयाप्रान्त में लीन कमनीय क्षीण शाशिरेखा
चिरनिशि जाप रही है विरहिणी प्रिया
जागकर अकेले अनन्त सौन्दर्य के साथ ।
 
फिर खो जाता है- ढूँढ़ता हूँ चहुँओर
वृष्टि होती है अविरल; छा जाता है अन्धियारा
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