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मेघदूत / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सुलोचना वर्मा

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कविवर, कब किस विस्मृत बरस में
किस पुण्य आषाढ़ के प्रथम दिवस में
लिखा था तुमने मेघदूत ? मेघमन्द्र श्लोक
विश्व में विरही हैं जितने, उन सबके शोक
रखा है अपना अंधेरा कई तहों में
सघन संगीत के मध्य में पुंजीभूत करके ।

उस दिन उज्जयिनी के उस प्रासाद-शिखर पर
न जाने कैसी घन घटा, विद्युत-उत्सव,
उद्दाम पवनवेग, गुड़गुड़ रव ।
गम्भीर निर्घोष उस मेघ संघर्ष का
जगा उठा सहस्र वर्षों के
अन्तरगूढ़ वाष्पाकुल विच्छेद क्रन्दन को
एक दिन में | तोड़कर काल के बन्धन को
उस दिन बह निकले थे अविरल
चिरकाल से अवरुद्ध अश्रुजल
आद्र करते हुए तुम्हारी उदार श्लोकराशि ।

उस दिन क्या संसार के समस्त प्रवासी
जोड़ हस्त मेघपथ पर शून्य की ओर उठा माथा
गाते थे समवेत स्वर में विरह की गाथा
लौटकर प्रिय के गृह ? बन्धनविहीन
नवमेघपंख पर कर आसीन
भेजनी चाही थी प्रेमवार्ता
अश्रुवाष्प से भरा - दूर वातायन में यथा
विरहन थी सोई भूतलशयन में
मुक्तकेश में, म्लान वेश में, सजल नयन में ?
उन सबों का गीत तुम्हारे संगीत में
भेज दिया क्या, कवि, दिवस में, निशीथ में
देश-देशान्तर में, ढूँढ़ते हुए विरहिणी प्रिया ?
श्रावण में जाहन्वी का जैसा हो जाता है प्रवाह
खींच लाती है दिग्दिगन्त से वारिधारा
महासमुद्र के मध्य होने के लिए दिशाहारा ।

पाषाण-शृंखलाओं में जैसे है बन्दी हिमाचल
आषाढ़ के अनन्त शून्य में हेरता हूँ मेघदल
होकर कातर लेता श्वास स्वाधीन-गगनचारी
सहस्र कन्दराओं से ला वाष्प राशि-राशि
भेजता है गगन की ओर; दौड़ते हैं वे
भागने की कामना करते हुए; शिखर पर चढ़कर
सब मिलकर अन्त में हो जाते हैं एकाकार,
समस्त गगनतल पर जमा लेते हैं अधिकार ।

उस दिन के बाद से बीते कई सौ दिन
प्रथम दिवस की स्निग्ध वर्षा नवीन ।
प्रत्येक वर्षा दे गई नवीन जीवन
तुम्हारे काव्य पर बरसाकर बरिषण
नववृष्टि वारिधारा, करते हुए विस्तार
नवघन स्निग्ध छाया का करते हुए संचार
नव नव प्रतिध्वनि जलद-मन्द्र की,
स्फीत कर स्रोत-वेग तुम्हारे छन्द की
वर्षातरंगिणी के समान ।

कितने काल से
कितने विरही लोगों ने, प्रियतमाविहीन घरों में,
वृष्टिक्लान्त बहुदीर्घ लुप्त तारा शशि
आषाढ़ संध्या में क्षीण दीपलोक में बैठ
उस छन्द का मन्द-मन्द कर उच्चारण
निमग्न किया है निज विजन वेदना
उन सबका कण्ठ-स्वर कानों में आता है मेरे
समुद्र के तरंगों की कलध्वनि के समान
तुम्हारे काव्य के भीतर से ।

भारत की पूर्वी सीमा पर
बैठा हूँ आज मैं जिस श्यामल बंग देश में
जहाँ कवि जयदेव ने वर्षा के एक दिन
देखी थी दिगन्त के तमालविपिन में
श्यामल छाया, मेघों से पूर्ण मेंदुर अम्बर ।
आज अन्धकार दिवा, वृष्टि झर-झर
पवन दुरन्त अति, अपने आक्रमण में
अरण्य बाहें उठाकर कर रही है हाहाकार ।
विद्युत् झाँक रही है चीरकर मेघ भार
बरसकर शून्य में सुतीक्ष्ण वक्र मुस्कान के साथ ।

अन्धेरे बन्द गृह में बैठकर अकेला
पढ़ रहा हूँ मेघदूत; मेरा गृह-त्यागी मन
मुक्तगति मेघों की पीठ पर जमाकर आसन,
उड़ रहा है देश-देशान्तर में । है कहाँ
सानुमान आम्रकूट; बहती है कहाँ
विमल विशीर्ण रेवा विन्ध्यपदमूल में
शिलाओं से बाधित है जिसकी गति; वेत्रवती के तीर पर
पके फलों से श्याम दिखने वाले जम्बू-वन की छाया में
कहाँ छिपा हुआ है दशार्ण ग्राम
खिली हुई केतकी के बाड़े से घिरा;
पथतरुशाख पर जहाँ ग्रामविहंगों ने
बनाए हैं अपने वर्षाकालीन नीड़, कलरव से पूर्ण
वनस्पति; न जाने किस नदी के तीर पर
वह जुहीवन में विहार करने वाली वनांगना लौट रही है,
तप्त कपोल के ताप से क्लान्त कर्णोतपल
मेघ की छाया लग वह हो रही है विकल;
भ्रू विलास नहीं सीखा; कौन हैं वे नारियाँ
जनपद की वधुएँ गगन में निहारती
घनघटा, उर्ध्व नेत्र से देखती हैं मेघपथ की ओर,
घननील छाया पड़ती है सुनील नयनों में;
मेघों से श्याम वह कौन सा है शैल
जिसकी शिला पर मुग्ध सिद्धान्गना
स्निग्ध नवघन को देख हुई थी अनमना
शिला के नीचे, सहसा भयानक झंझा के आते ही
चकित, चकित हो भय से काँपती थर-थर
वसन सम्भाल ढूँढ़ती फिरती गुहाश्रय,
कहती हैं,"ओ माँ, लगता है गिरि-शृंग उड़ा कर ले जाएगी"
कहाँ है अवन्तिपुरी; निर्विन्ध्या तटिनी;
कहाँ उज्जयिनी ढूँढ़ती शिप्रा नदी के जल में
स्वयं हिमछाया - जहाँ द्विप्रहर में
प्रणय चंचलता भूल भवन के शिखर में
सुप्त कपोत, है केवल विरह विकार में
रमणी निकलती है बाहर प्रेम-अभिसार के लिए

सूची भेद्य अन्धकार में राजपथ के मध्य
कदाचित विद्युतलोक में; कहाँ विराजता है
ब्रह्म्नावर्त में कुरुक्षेत्र; कहाँ है कनखल,
जहाँ वह चंचल यौवना जहूकन्या,
गौरी की भृकुटी भंगिमा की कर अवहेलना
छोड़कर झाग कर रही है परिहास
पकड़कर धुर्जटि की जटा भाल चन्द्रस्पर्शी तरंग रूपी हाथों से
इस प्रकार मेघ रूप में कई देशों से होकर
हृदय तैरता जाता है, उत्तरीय के अन्त में
कामनाओं का मोक्षधाम अलका के मध्य,
विरहणी प्रियतमा विराजती है जहाँ
होती है सौन्दर्य की आदिसृष्टि | कौन ले जा सकता था
वहाँ, तुम्हें छोड़, बिना खर्च के
लक्ष्मी की विलासपूरी - अमर भुवन में !

अनन्त वसन्त में जहाँ नित्य पुष्पवन में
नित्य चन्द्रलोक में, इन्द्रनील पर्वत के मूल में
स्वर्ण सरोज खिलकर सरोवर कूल में
मणिमहल के असीम सम्पदा में हो निमग्न
रो रहे हैं एकाकीपन की विरह वेदना पर ।

खुले वातायन से उन्हें देखा जा सकता
शैयाप्रान्त में लीन कमनीय क्षीण शाशिरेखा
पूर्व गगन के मूल में लगभग अस्तप्राय ।
कवि, तुम्हार मन्त्र से आज मुक्त हो जाता है
रुद्ध हो चुकी है इस हृदय के बन्धन की व्यथा;
पाया है विरह का स्वर्गलोक, जहाँ
चिरनिशि जाप रही है विरहिणी प्रिया
जागकर अकेले अनन्त सौन्दर्य के साथ ।

फिर खो जाता है- ढूँढ़ता हूँ चहुँओर
वृष्टि होती है अविरल; छा जाता है अन्धियारा
आई है निर्जन निशा; प्रान्त के अन्त में
रोता हुआ चला जा रहा है वायु बिना किसी उद्देश के।
सोच रहा हूँ आधी रात, हैं अनिद्रनयान,
किसने दिया ऐसा श्राप, काहे का व्यवधान ?
क्यूँ उर्ध्व में देख रोता रुद्ध मनोरथ ?
क्यूँ प्रेम को नहीं मिल पाता निज पथ ?
सशरीर कौन नर गया है वहाँ,
मानस सरसी तट पर विरह निद्रित

रविहीन मणिदीप्त साँझ के देश में
जगत की नदी, गिरी, सभी के शेष में ।

मूल बांगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा
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