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|रचनाकार=मोहम्मद मूसा खान अशान्त
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<poem>
खुलेगी ज़िन्दगी की अब किताब आहिस्ता-आहिस्ता
बहुत हम पी चुके यारों शराब आहिस्ता-आहिस्ता

मैं हूँ मसरूफ़ पीने में न कर ज़ल्दी तू ऐ साक़ी
मिली फुर्सत तो कर दूँगा हिसाब आहिस्ता-आहिस्ता

किया रुस्वा सरे बाज़ार उसने और फ़रमाया
इसे होना ही था खाना ख़राब आहिस्ता-आहिस्ता

मिरा खत दे के नामाबर ने इतना कह दिया उनसे
लिखेंगे अब वो इस खत का जवाब आहिस्ता-आहिस्ता

जनाब-ए-शेख़ तो फ़तवे ही देते रह गए मूसा
मगर मैं हो गया गर्क-ए-शराब आहिस्ता-आहिस्ता
</poem>