1,257 bytes added,
04:55, 30 जून 2024 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विवेक निराला
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
लोग जहाँ-तहाँ रुक गए
बन्द हुआ
ईश्वर का सारा रोज़गार।
न नदियों में प्रवाह रह गया
न ज्वालामुखी में दाह
एक कराह भी थम गई ।
प्रदक्षिणा दक्षिण में ठहर गई
और अवाम के लिए
तय बाँये रास्ते पर
बड़े गड्ढे बन चुके हैं ।
एक ही भभकती लालटेन
अपने शीशे के और काले होते जाने पर
सिर धुनती निष्प्रभ पड़ी है ।
क्षण भर के लिए
आसमान से कड़की और चमकी
विद्युत् में रथच्युत योद्धा
लपक कर लापता हुए ।
जीवन अब भी अपठित है
मृत्यु अलिखित
समय अभी स्थगित ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader