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14 जुलाई {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ग़स्सान ज़क़तान
|अनुवादक=निधीश त्यागी
|संग्रह=
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<poem>
हमारे बीच कहने को कुछ न बचा
सब उस ट्रेन में चला गया जिसने अपनी सीटी
उस धुएँ में छुपा ली जो बादल न बन सका
उस चले जाने में, जिसने तुम्हारे हाथ पाँव बटोरा किए
कुछ भी नहीं बचा कहने को हमारे बीच
इसलिए रहने देते हैं तुम्हारी मौत को
चमकती चाँदी की गहरी कौंध
और रहने देते हैं उन शहरों के सूरज को
तुम्हारे कंधों पर रखे गुलाब
के अक्स में.
</poem>
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